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सनातान धर्म

धर्म अपने मूल स्वरूप में सनातान है, क्योंकि यह न तो कभी सृजित हुआ तथा न ही कभी इसका अन्त होगा। इसका कारण है कि जो सत् है, जिसका अस्तित्व स्वयं में है, जो अस्तित्व अनादि तथा अनन्त है, जिसके होने से ही सबकुछ है, उसी के नियमों को पाकर या जानकर उसी के अनुरूप चलने को ही धर्म कहते हैं। इस सनातन के बारे में ही उपनिषदों में कहा गया है है - एकं सत्यं, विप्राः बहुधा वदन्ति, अर्थात् सत्य एक है जिसे विप्र अर्थात् ज्ञानवान लोक अनेक प्रकार से बतलाते हैं। यही धर्म सनातान है तथा यही सनातन धर्म है। अर्थात् इस धर्म का सृजन नहीं हुआ बल्कि यह उस स्वयंभू सत्ता या सत् के अस्तित्व से साथ स्वयं ही अस्तित्व में है जिसे समय समय पर हमारे ऋषियों ने जाना तथा हमें बताया।

ईश्वर को मानने वाले कहते हैं कि यह सत् ईश्वर ही है, जिसके होने से ही यह धर्म अनादि काल से है, तथा ईश्वर के अस्तित्व के साथ ही इसका अस्तित्व अनादि काल तक रहेगा। उसी ईश्वर की कृपा से मनुष्य को अनेक चरणों में धर्म तथा उसके नियमों का ज्ञान हुआ। जो पहले से ही था उसका ज्ञान हुआ, सृजित किसी ने नहीं किया।

अन्य लोग इस सत् को सत् ही मानते हैं, तथा उसे ईश्वर, ब्रह्म, अल्लाह, गॉड आदि कोई नाम नहीं देते। ये भी सनातनी हैं क्योंकि ये भी उसी सत्य को सत् के नाम से जानते हैं जिस सत्य को इतर जन ईश्वर के नाम से जानते हैं।

दोनों तरह के लोगों में सामान्य बात यह है कि दोनों उस सत् को अनादि तथा अनन्त मानते हैं।

इस सिद्धान्त से चलने वाले सभी लोगों को सनातनी कहा जाता है। यही कारण है कि हम सनातनी हिन्दू, सनातनी इस्लाम आदि शब्दावली भी विद्वानों के बीच प्रचलित है।

इस सत्य को अलग-अलग समय में अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग प्रकार से जाना जिसे अनेक ग्रंथों में संकलित किया गया। ये ग्रंथ ही धर्मग्रंथ कहे जाते है। परन्तु मनुष्यों की बुद्धि का स्तर अलग-अलग होने के कारण उन वचनों, जो ग्रंथों में संकलित हैं, को मनुष्यों ने अलग-अलग ढंग से समझा जिसके कारण धर्म की अनेक शाखाएं हो गयीं।

Page last modified on Wednesday March 26, 2014 03:51:13 GMT-0000